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तीन तलाक महिला दमनकारी और विवाहित बलात्कार बिलकुल सही

(Prashant Pratyush in Hindi, Sexism And Patriarchy, Women Empowerment)(यूथ की आवाज से ली गई पोस्ट) 
यह अजीब विरोधाभास, कुछ दिनों पहले जो सरकार ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर अपनी पीठ थपथपा रही थी, आज विवाहित बलात्कार के विषय पर उसी सरकार के हौसलें पस्त हो रहे हैं, सांसे फूलने लगी हैं।

वैवाहिक बलात्कार के मामले पर केंद्र सरकार का मानना है कि इसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस तरह के नियम-कायदों से परिवार और विवाह जैसी संस्था की नींव हिल जाएगी। अगर इस तर्क को मान भी लिया जाए तो दहेज कानून और घरेलू हिंसा कानून बनने के बाद भी इस तरह की बातें कही जा रही थीं। जबकि नज़ीर यह है कि आज भी महिलाएं दहेज और घरेलू हिंसा के विरुद्ध शिकायत तक दर्ज नहीं करा पाती है। उल्टा दहेज स्वीकार करने का पूरा स्वरूप ही बदल गया है और वह इस तरह का है कि वो वर-वधू दोनों तरफ के लोगों को कमोबेश स्वीकार भी होता है।

अगर थोड़ी देर हम सरकार के इस तर्क को मान भी लें तो एक लड़की के साथ जब बलात्कार होता है और वो शिकायत दर्ज करने जाती है तो उसकी कितनी बात सुनी जाती है?

क्या उसके लिए अपने विरुद्ध हुए हिंसा की शिकायत दर्ज़ करना आसान होता है। वास्तव में डर इस बात से है कि इस तरह के नियम-कायदों के बाद अगर शिकायत खासों-आम के बीच पहुंची तो परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल होगी।

वैवाहिक बलात्कार के विषय में अच्छी बात यह है कि दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका को स्वीकार कर लिया गया है और अब बहस पब्लिक स्फीयर में मौजूद है। जिसमें याचिकाकर्ता के अनुसार, कानून में पत्नियों को ‘ना’ कहने का अधिकार नहीं है और ना ही सहमति से ‘हां’ कहने का अधिकार दिया गया है। शादी या विवाह की संस्था में पति-पत्नी दोनों को ज़रूरी धुरी मानता है, लेकिन पुरुष को ही सारी वरीयता क्यों दी गई है? यह कैसी पहिया गाड़ी है जिसमें पत्नी की इच्छा कोई मायने ही नहीं रखती है। लगातार सेक्सुअल हिंसा परिवार के अंदर महिलाओं के मानवाधिकार का हनन है और इसे क्राइम ही समझा जाना चाहिए।

यह बहस विवाहित और अविवाहित महिलाओं के उनके शरीर पर अधिकार की मांग करती है। विवाह के बाद भी पति को उसके शरीर पर अधिकार का लाइसेंस नहीं दिया जा सकता है। समाज को यह स्वीकार करने की ज़रूरत है कि कोई भी महिला अपनी मर्जी के बगैर किसी का स्पर्श भी बर्दाशत नहीं कर सकती। दूसरी बात यह भी है कि जब घर के बाहर महिलाओं की सहमति के बगैर बनाया गया शारीरिक संबंध यदि बलात्कार है। तो परिवार के अंदर उसकी समहति के बगैर (जहां “ना” या “हां” कहने का अधिकार ही नहीं है) बनाया गया शारीरिक संबंध, बलात्कार किस तरह से नहीं है?

वास्तव में मौजूदा बहसों के केंद्र में महिलाओं की सुरक्षा, चाहे वो निजी दायरे में हो या सार्वजनिक दायरे में, उसकी बेखौफ आज़ादी को बचाने की कोशिश या मांग है। यह सार्वजनिक चर्चाओं में बहस का हिस्सा तो बनती हैं, लेकिन निजी दायरे में कभी सतह पर अपनी जगह नहीं बना पाती हैं।

हम महिलाओं की सुरक्षा को केवल पितृसत्तात्मक नियम-कायदों या मान-सम्मान की सजी सजाई थाली के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं।

महिलाओं की सहमति के अधिकार के संदर्भ में यह वो शुरूआत है, जिसके लिए महिलाओं के साथ पुरुषों को भी घर से सड़क तक अपने संघर्षों को तेज़ करना ही होगा। सनद रहे कि किसी भी लोकतांत्रिक अधिकार के कानून एक दिन में नहीं बनते हैं। समाज के साथ-साथ परिवार में भी बराबरी का अधिकार पाने की लड़ाई में अभी कोसों दूर तक का सफ़र तय किया जाना बाकी है।

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