
मई दिवस पर विशेष …
  #मजदूर#
  जो अन्न उपजाकर राष्ट्र का पेट पालता हो और पेट बाँध कर भूखा सो जाने को विवश हो । जो बेशकीमती वस्त्र तो बनता हो,पर कंपकंपाती ठंड में भी नंगा रहने को लाचार हो।जो दमन भठ्ठियो में हड्डियां गलाकर सूई से लेकर जहाज तक बनाता हो , दुनिया भर को साज़ोसामान मुहैया कर खुद अभावों में जीता हो और आलीशान इमारतें बनाता फुटपाथों पर सोने को अभिशप्त हो ….. *** आभार-पूर्व सांसद आनंद मोहन जी के टाईम लाइन से***
 इसी हकीकत को बयां करते किसी शायर ने कभी कहा था –
  “कुचल -कुचल के न फुटपाथ को चलो इतना,
  यहाँ रात को मज़दूर ख्वाब देखते हैं”…
  19 वीं सदी का वह ख़ौफ़नाक दौर, जब दुनिया भर में मजदूर शोषण की चक्की में पिस घुट-घुट कर जीने को विवश थे । फैक्ट्रियों में 12 से 16 घंटे काम करने को मजबूर थे। इस दौरान दुर्घटना में गंभीर चोटें ओर मौतें आम बात थी , पर बदले में उन्हें न्यून्तम पारिश्रमिक दिया जाता था। दुनिया भर में इस अन्यायपूर्ण नीति के खिलाफ आवाजे उठने लगी थीं ।
#सन 1810 से शुरू होकर 1847 के आसपास सोसलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ की अगुवाई में ब्रिटेन में , 1856 में ऑस्ट्रेलिया के स्टोनमेन्शन और मेलबर्न में । #1866 में “इंटरनेसनॉल वर्किंग मेंस एशोसिएशन” के नेतृत्व में जिनेवा में, न सिर्फ आवज़े उठीं बल्कि कई निर्णायक संघर्ष भी छिड़े । नारा था- “8 घंटे काम ,8 घंटे मनोरंजन और 8 घंटे आराम” । इन संघर्षों की प्रेरणा के मूल में थे , कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स के सोशलिस्ट दर्शन और विचार । जिन्होंने ललकारा था – ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ ।तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नही और पाने को सारा संसार है”।
#मजदूर दिवस#
 इस दिन का मूल संदेश है- -“श्रम को पूंजी की सत्ता से मुक्ति दिलाना, उसकी गरिमा की पुनर्स्थापना करना और शोषण के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष की चेतना जगाना ।भूमंडलीकरण और उदारीकरण के इस दौर में जब बड़ी कुर्बानियों और कठिन संघर्षों से प्राप्त अधिकारों की सुरक्षा और सुविधाओं को गँवाकर मजदूर आज छँटनी और बर्खास्तगी के शिकार बनाये जा रहे हैं , निजी क्षेत्रों प्रतिभावान नौजवान बगैर छुट्टियां 10-12 घंटे हार तोड़ मशक्कत को वाध्य हैं , श्रमिकों की एकता और मई दिवस की प्रासांगिकता और बढ़ गई है । 
  #वह ऐतिहासिक घटना#
  1 मई 1886 । अमेरिका के शिकागो शहर में मिल मजदुर 8 घंटे कार्यदिवस की अपनी मांगों को लेकर लम्बे हड़ताल पर थे ।हजारों हड़ताली मजदूरों ने अपनी जायज मांगों को लेकर रोषपूर्ण ओर विराट प्रदर्शन किया । नेशनल गार्ड और पुलिस के घुड़सवार दस्ते भीड़ को तितर – बितर करने के प्रयासों में जुटी थी, जब अचानक एक अनजान व्यक्ति के द्वारा भीड पर बम फेंका गया और पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दी , परिणाम स्वरूप मोके पर कई मजदूर प्रदर्शनकारी स्त्री और पुरूष मारे गए ।घायल प्रदर्शनकारियों ने अपने खून से सने वस्त्रों का परचम लहराकर इसका कड़ा प्रतिकार किया और तब से 1 मई को ‘शिकागो विद्रोह’ की हर वर्षगांठ पर दुनिया भर के मजदूर यूनियन, समाजवादी ओर साम्यवादी संगठन इसे ‘मई दिवस’ या “labour day” के रूप में मनाते आए हैं ।
  #मजदूर हैं हम, मजबूर नहीं#
  मशहूर शायर ‘सोज़’ का एक गीत है-
  ये बात ज़माना याद रखे
  मजदूर हैं हम, मजबूर नहीं,
  ये भूख , गरीबी , बदहाली
  हरगिज हमको मंजूर नहीं …
  #सच , मजदूर कभी मजबूर नहीं होते ।
वो अपने खून -पसीने की खाता ,स्वाभिमान से जीता और थोड़े में खुश रहता है ।जिसे अपनी मेहनत और हिम्मत पर भरोसा है ।
‘शिकागो विद्रोह’ के लगभग 100 साल बाद अपने देश मे एक फिल्म आई -“मजदूर” ।  जिसके मुख्य कलाकार थे दिलीप कुमार । ‘फ़ैज़’ के चर्चित गीत को आर०डी०बर्मन ने संगीत और महेन्द्र कपूर ने अपना स्वर दिया था ।गीत के बोल थे –
  हम मेहनतकश जगवालों से
  जब अपना हिस्सा मांगेंगे ,
  इक खेत नहीं, एक देश नहीं
  हम सारी दुनिया मांगेंगे …
  जो खून बहे और बाग लुटे
  जो गीत दिलों में दफ्न हुये ,
  हर गुंचे का, हर कतरे का
  हर गीत का बदला मांगेंगे …
  इन्कलाब – जिँदावाद !
  मजदूर एकता जिंदावाद !!
  ‘मई दिवस’ – जिँदावाद !!!