आधी आबादीकोशीसहरसा

अनचाहा स्पर्श यौन उत्पीड़न नहीं है—-

प्रत्युष प्रशांत (Researcher at JNU New Delhi(आभार womenwomenia.blogspot.) पर्व-त्यौहार के शोरगुल भरे महौल के खत्म होने बाद, बीते सप्ताह विश्व आर्थिक मंच(WEF) के महिला समानता सूचकांक के आकंड़ों में अर्थव्यवस्था और कम वेतन में महिलाओं की भागीदारी में भारत की स्थिति उत्साहवर्धक नहीं रही है, वह 21वें स्थान से फिसलकर चीन और बांग्लादेश के पीछे 108वें स्थान पर पहुंच गई है। शिक्षा और स्वास्थ्य के सूचकांक भी संतोषजनक नहीं रहे है। जो यह सिद्ध करता है कि भले ही अपने पर्व-त्यौहार के आस्था में हम महिलाओं को देवी का दर्जा देकर अराध्य मान रहे हो पर घर,चौक-चौराहे-मोहल्ले,स्कूल-कालेज और कमोबेश हर जगह महिलाओं के साथ गैर-बराबरी बनाये ही नहीं रखा है, उसमें बढ़ोतरी भी दर्ज की है। मौजूदा स्थिति में अव्वल पायदान तक पहुंचने में अभी कई दशकों का सफर तय करना पड़ सकता है। क्योंकि घरेलू और बाहरी दुनिया में महिलाओं की उपस्थिति को सहज बनाये रखने के मौलिक शर्तो में ही उलझे हुए है। “सभी अनचाहा स्पर्श यौन उत्पीड़न नहीं है” दिल्ली हाईकोर्ट के यौन उत्पीड़न के नई परिभाषा के दायरे ने घरेलू और बाहरी दुनिया में महिलाओं की उपस्थिति को सरल कम जटिल अधिक बना दिया है। दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस बाखरू ने अपने फैसले में बताया कि सभी तरह के शारीरिक संपर्क को यौन उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आंका जा सकता, दुर्घटनावश शारीरिक संपर्क भले ही अशोभनीय हो, लेकिन वो यौन उत्पीड़न नहीं होगा। सिर्फ उसी तरह का शारीरिक संपर्क यौन उत्पीड़न की श्रेणी में आएगा जो “अनचाहा यौन व्यवहार” प्रकृति का हो। जाहिर है कि हाथ पकड़ना, किसी को छूना, हर ऐसे फिजिकल कान्टैक्ट को यौन उत्पीड़न कहकर आरोप नहीं लगाया जा सकता है। यह फैसला सार्वजनिक क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं के साथ-साथ निजी क्षेत्र में भी महिलाओं के जीवन से जुड़ा हुआ है।भारत जैसा समाज जो “हंसी तो फंसी” और “हंस मत पगली प्यार हो जायेगा” जैसे शब्दों में उलझकर अपनी फंतासी में खोया रहता है, जहां प्रसिद्ध सेलीब्रेटी “आप बेल बजाईये, फिर मैं आपकी बजाता हूं” जैसी टिप्पणी ह्रयूमर के हंसी में खो जाता है। जहां सार्वजनिक या निजी क्षेत्र में किसी भी महिला के कंधे पर हाथ रखना, सर पर चपत लगाना, बांह में चूंटी काटना, कमर पर हाथ रखना या चपत लगाना, प्रेम या सेक्स निवेदन करना, लंबे समय तक देखना या घूरना, पीछा करना, अश्लील भाषा में बात करना या अश्लील गतिविधि करना महिलाओं को असहज बना देता है। वहां “अनचाहे स्पर्श” का हलिया फैसला परेशान करने वाला ही है।

एक समय यह मान लिया जाय कि सभी तरह के शारीरिक स्पर्श यौन उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता है क्योंकि रोजाना की भाग-दौड़ में भीड़ में शारीरिक स्पर्श चाहे-अनचाहे में हो जाता है, पर यह अनजाना स्पर्श शर्मिदा भी होता है, और गलति पर माफी भी मांगता। पर असंख्य रोज होती घटनाओं या अनचाहे अनुभवों को कैसे समझा जाये? जो उनके साथ घरेलू और बाहरी दायरे में इरादतन कुंठित मानसिकता के लोग भीड़ में महिलाओं के शरीर को छूने की कोशिश में होती है, यहां शर्मिदर्गी नहीं कुंठित विजय भाव होता है। जाहिर है “अनचाहे स्पर्श” का मामला भीड़ में हाथ लग गया होगा तक ही सीमित नहीं है, इसके पीछे एक मानसिक यथास्थिति का कुंठित भाव है। जिसे कम कपड़े, अकेली लड़की या अन्य प्रश्न वाचक सवालों से गुमराह नहीं किया जा सकता है। गोया, “अनचाहा स्पर्श” और उत्पीड़न में हमने उस उत्पीड़न को बहस में बाहर का रास्ता दिखा रहे है जो अश्लील शब्दों और अन्य अश्लील गतिविधियों से होता है। हमने उत्पीड़न के बहस के दायरे की चौहद्दीयां पहले से तय कर रखी है। “अनचाहा स्पर्श” को यौन उत्पीड़न से उन्नीस मानकर उसे उन तरीकों में बढ़ावा देने की कोशिश जरूर कर रहे है, जो बाद में किसी समस्या का कारण बन सकता है।
गौर करने की बात यह भी है अनचाहे स्पर्श पर यह विचार तब पब्लिक डोमेन में आया है जब देश दुनिया की आम और खास महिलाएं #ME TOO.. के मुहिम तले अपने सेक्सुअल अब्यूज से जुड़े कड़े अनुभवों को बेबाकी से बयां कर रही है। यह सिद्ध करता है कि पूरी दुनिया में महिलाएं निजी और सार्वजनिक स्पेस में तमाम महिला सुरक्षा कानूनों और दावों के बाद भी कहां खड़े है? यह भारत जैसे देश में अधिक महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि यहां सेक्स को अनैतिक विषय माना जाता है। इस विषय पर बात करना आपको चरित्रहीन का प्रमाणपत्र दे देता है। यह धारणा अपनी जड़े इतनी गहराई से जमा चुकी है कि अगर आप अपने मित्र से किसी को पसंद करने के बारे में जिक्र करे तो इसे हिंदी फिल्मों के फुलों के फूलों से मिलना, समुद्र में उछाल आना या सुखे में बारिश की बूंदों का पड़ना के दृश्यों यानी सेक्स का सीधा मौका समझ लिया जाता है।
भारतीय समाज में महिलाओं के उत्पीड़न का मूल स्त्रोत क्या है? इसकी पड़ताल में जाति, वर्ग, धर्म और आर्थिक विपन्नता या गतिशीलता की स्थितियों को जिम्मेदार माना जा सकता है, परंतु ये सभी स्वतंत्रता और समानता के दिशा में एक राजनीति के रूप में उदित होती हैं। इन सभी के मूल में प्राथमिक कारण पुरुषवादी वर्चस्वशाली सोच ही है जो अपनी पुरूषवादी राजनीति में इन सभी कारकों का टूल के रूप में इस्तेमाल करता है।
जाहिर है हमें और समाज को महिलाओं के तमाम विषयों पर अधिक संवेदनशील होने की जरूरत है। निजी और सार्वजनिक हर दायरे में खुद को और समाज को लोकतांत्रिक बनाने के लिए संवेदनशीलता का कई चैप्टर परत दर परत समझने की कोशिश करनी होगी और “अनचाहा स्पर्श” के अनुभवों का अध्ययन करना होगा। इस तरह के प्रयास कई संस्थाओं के माध्यम से किया जा रहा है, मसलन मुबंई में जाणीव ट्रस्ट की कोशिशों की सराहना की जा सकती है। पर जरूरत इस तरह के प्रयासों को आंदोलन के तरह तेज करनी की और यौन उत्पीड़न के दायरे पर परत दर परत समझ विकसित करने की भी है। हम तभी स्त्री-पुरुष संवेदी सूचकांक पर भी अव्वल कतार में होगे और मानवता के अव्वल पायदान पर भी।

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