ऊँचे मकानों में आज भी दबी है स्त्रियों की जुबान….

ऊँचे मकानों में आज भी दबी है स्त्रियों की जुबान….
घरेलू हिंसा और मानसिक प्रताड़ना की हो रही है शिकार….
पूरुष प्रधान समाज है इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेवार….
पूजा परासर का विश्लेषण…..
स्त्री सुधार को लेकर बड़े -बड़े दावे होते रहें हैं और इसकी आड़ में राजनीति चमकाने के साथ–साथ हर तरीके से उल्लू भी सीधा किया जाता रहा है । कई कानून स्त्री के लिए बने तो,कई योजनाएं कागजों में ही दम तोड़ती रही हैं ।फिर भी जिस सुधार की उम्मीद हम लगाए बैठे थे,हमें उसका अंश मात्र भी जमीनी स्तर पर देखने को नहीं मिल रहा है ।क्या केवल सरकार इसके लिए जिम्मेवार है?क्या केवल कानून के दम पर हम इतनी बड़ी आबादी को अधिकार दिला सकते हैं ?
आज स्त्रियों की दशा में सुधार की जरुरत हर घर में है,हर मजहब में है,हर तबके,हर समाज में है ।”क्या यह कहा जा सकता है की हमारा पुरुष प्रधान समाज नारी के वृहत्तर औचित्य और उसके शास्वत संवर्धन को कुंद करने के लिए सबसे अधिक जिम्मेवार हैं ?”यह बिल्कुल सच है ।साथ ही स्त्रियों के दीन-हीन दशा के पीछे स्वयं स्त्रियां भी जिम्मेवार हैं ।भौतिक और शारीरिक स्वार्थ स्त्रियों पर कुछ इस तरह हावी है की आज वे स्वयं ही अपने आप की पहचान नहीं कर पा रहीं हैं ।आज के दौर में अच्छे और महंगे कपड़े,घर से बाहर भोजन और घर में हर सुख–सुविधा के सामान तक ही स्त्रियों की मानसिक दशा सीमित हो गयी है ।हांलांकि यह दीगर बात है की पहले की नारियों ने जो परिवर्तन चाहा,आज की कुछ नारीयां ही उस राह पर चल रही हैं ।ऊंचे मकानों में आज भी स्त्रियों की जुबान दबी हुयी है ।हमारे पुरूष प्रधान समाज में पति परमेश्वर हैं ।आज के आधुनिक दौर में जो नारी इस परम्परा को मान रही हैं,कहीं ना कहीं वही मानसिक,शारीरिक रुप से और अपनी सामाजिक प्रासिंगता के मद्दे नजर से सिद्दत से प्रताड़ित हो रही हैं ।पुरूष का प्रेम स्त्रियों के लिए स्वार्थ युक्त और बेहद संकुचित है ।
जब तक हमारे समाज के हर व्यक्ति स्त्रियों के प्रति अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक स्त्री सुधार की बात महज एक कल्पना और दिवास्वप्न भर है ।यह एक अहम् मसला है की स्त्रियों को भी भौतिकवादी परिवेश से बाहर आकर अपनी वास्तविकता को समझना होगा ।
यह बात सर्वविदित है की अधिक अपेक्षाएं आपको कमजोर बनाती हैं ।अधिक महत्वाकांक्षाएं शर्तों पर जीने को मजबूर करती हैं ।सिर्फ कानून के बल पर बुराईयों को कतई खत्म नहीं किया जा सकता है ।जब तक आधी आबादी को पूर्ण अधिकार नहीं मिल जाता,तब तक ना पुरूष पूर्ण है और ना ही हमारा समाज ।जाहिर तौर पर ऐसी अपूर्ण दशा में देश और समाज का पूर्ण विकास शब्दों में ही सिमटकर रह जाएगा ।इच्छा की जगह अभीप्सा का सृजन जरुरी है ।नारी को शब्दजाल से ईज्जत बख्सी के खोखले अभिव्यंजना से पुरुष जात को उबरना होगा ।बड़ा यथार्थ यह है की एक स्त्री,एक पुरुष में सिमटकर अपनी पूरी दुनिया देखती है लेकिन एक पुरुष कई स्त्रियों की सोहबत में रहकर खुद को यशस्वी साबित करते रहते हैं ।नारी को वस्तु समझने की परम्परा बदलनी होगी ।नारी और पुरुष स्वस्थ जीवन में एक दूसरे के पूरक हैं ।नारी को अपने शौर्य को और पुरुष को अपने कर्तव्य को समझना बेहद जरुरी है ।भारतीय सभ्यता की नारी आधुनिक समय में निर्मल और निश्छल प्रेम के अभाव में भटकन की शिकार है ।पुरुष को आगे बढ़कर बेहतर सहचर और रहबर बनकर दिखाना होगा ।नारी प्रेम की भूखी है ।उसके प्रेम के इस्तेमाल को बन्द करने पर ही पूज्या नारी का पुरातन अस्तित्व दृष्टिगत होगा ।